बाहरी संस्कृति के प्रभाव आदिवासी समाज में खत्म हो रही है सहकारिता की भावना : सर्जियस मिंज

बाहरी संस्कृति के प्रभाव आदिवासी समाज में खत्म हो रही है सहकारिता की भावना : सर्जियस मिंज

 

रायपुर, 11 जून 2023। भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी “आज़ादी के 75 वर्ष और जनजातीय पारंपरिक संस्कृति का संरक्षण एवं विघटन की स्थिति” के तीसरे दिन समापन समारोह का आयोजन हुआ।
कार्यक्रम इस अवसर पर मुख्य अतिथि छत्तीसगढ़ राज्य वित्त आयोग के अध्यक्ष सर्जियस मिंज ने कहा कि मानव के साथ मानव का संबंध ही संस्कृति है। आज भी आदिवासी समुदाय के लोग सहज, सरल और सहृदय है। उनमें सहकारिता की भावना है जिसके कारण वे किसी भी कार्य को सामूहिक रूप से करते हैं, लेकिन हमारा समाज आज सामूहिकता से व्यक्तिवादिता की ओर बढ़ रहा है। यह बदलाव आदिवासी समुदाय में भी देखने को मिल रहा है। बाहरी संस्कृति के प्रभाव में उनमें सहकारिता की भावना खत्म हो रही है, इसे कैसे बनाए रखे यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है। किसी भी समुदाय के ज्ञान को कमतर नहीं आकना चाहिए। आईक्यू अभ्यास से जुड़ा हुआ है, इसका संबंध जाति, समुदाय, धर्म विशेष से नहीं है। आज राज्य और देश के नीतियों में विकास की बात की जाती है, लेकिन जिसका विकास होना है उसके पहचान की बात नहीं की जाती है। जबकि वास्तव में उस व्यक्ति को समझना होगा कि वह कौन है। आदिवासियों को उनकी पहचान देने की ज़िम्मेदारी समाज वैज्ञानिकों की है ताकि उनके विकास को सही दिशा दिया जा सके। आदिवासी समाज को मुख्यधारा में लाना है और उनकी विशेषताओं को बनाए रखते हुए यह बड़ी चुनौती है।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई से आए विशिष्ट अतिथि प्रो. विपिन जोजो ने कहा कि एक खास नजरिए के कारण आदिवासियों को बर्बर, असभ्य, अशिक्षित, पिछड़े हुए के रूप में देखा जाता है। ये औपनिवेशिक नजरिया रहा है। संगोष्ठी में आदिवासियों के विभिन्न मुद्दों पर गहन चर्चा हुई है। हमारी मुख्यधारा की परिभाषा समस्याग्रस्त है जिसके कारण हम कुछ साधन संपन्न वर्ग को मुख्यधारा के रूप में देखते हैं। इसी मुख्यधारा के विकास के कारण आदिवासी समुदाय की नई पीढ़ी जल, जंगल, जमीन, संस्कृति और पारंपरिक ज्ञान को खो रहे हैं।
विकास के पैमाने के हिसाब से देखें तो भारत का सबसे विकसित राज्य का आदिवासी अपनी पहचान खो चुका है। हमें विकास को देखने के नजरिए में बदलाव लाने की जरूरत है। अगर देश, दुनिया और सम्पूर्ण मानवता को बचाना है तो आसिवासियों से सीखने की जरूरत है। वैश्विक स्तर पर विकास के नए फ्रेम वर्क में आदिवासी नजरिए को शामिल करना होगा। हमें अपने शोधों में आदिवासी ज्ञान, परंपरा को भी सहेजने की जरूरत है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पं. रविवि प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रो. आर. के. ब्रम्हे ने कहा कि आज दुनिया में सबसे सरल होना ही सबसे कठिन है, और यही सरलता हमें आदिवासी समाज में देखने को मिलती है। विश्वभर में राज्यों की निर्माण से पहले आदिवासी समाज रहा है और निश्चित तौर पर विभिन्न ज्ञान परंपरा आदिवासी समाज से जुड़ी रही है। आज की बड़ी चुनौती अपने संस्कृति के साथ विकास की ओर अग्रसर होना है। सांस्कृतिक अस्थिरता के कारण नए हो रहे बदलावों का सबसे नकारात्मक प्रभाव हाशिए के समाजों पर पड़ता है और वह समाज अपने जड़ो से कट जाता है।
कार्यक्रम में अतिथियों का समाजशास्त्र एवं समाज कार्य अध्ययनशाला के अध्यक्ष व संगोष्ठी के संयोजक प्रो. निस्तर कुजूर, प्रो. एल. एस. गजपाल व असोसिएट प्रो. हेमलता बोरकर वासनिक के द्वारा राजकीय गमछा व प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया गया। धन्यवाद ज्ञापन प्रो. एल. एस. गजपाल के द्वारा किया गया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. नरेश कुमार साहू के द्वारा किया गया।

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